नारायणबली - नागबली
नारायणबली और नागबली यह दो धार्मिक विधि कुछ इच्छा पुर्ति के हेतु से किए जाते है । इसलिए इन विधियों को 'काम्य विधी' कहते है।
अपत्य प्राप्ती हेतु (संतती के लिए) | शाप का संकेत करनेवाले सपने |
पिशाच्चो के तकलिफ से मुक्ति पाने के लिए | मनुष्य जाती का नागजातिसे रिश्ता |
संतति या अपत्य प्राप्ती हेतु (संतती के लिए)
अगर किसी दांपत्य को बच्चा न हो तो उन्हे मनहुस माना जाता है । समाज में अपत्यहिन व्यक्ती का मुख प्रात: देखना अशुभ समझते है । इसलिये सभीकी यह इच्छा होती है की उनका कमसे कम एक बच्चा हो । बिना परिवारका जीवन अधुरासा लगता है । बच्चो के प्रति प्रेम, ममता, यह भाव प्राकृतिक है, और इन भावों की पुर्ति न होन पर मनुष्य का दु:खी होना स्वाभाविक है । चाहे अमीर हो या गरीब परंतु बच्चे के बिना जीवन दापंत्य के लिए जीवन नही होता ।
आजके आधुनिक जगत मे संतती के प्राप्ती के लिये टेस्ट टयुब पध्दती का उपयोग किया जाता है । दापंत्य उनकी औकात न होते हुऐ कर्जे निकालकर मंहगी आधुनिक उपायों के प्रयोग संतती प्राप्ती के हेतुसे करती है । परंतु जब कई विविध कोशीशों के बावजुद भी सकारात्मक परिणाम नही मिलते तो अन्त में हारकर मायुस होकर ऐसे दापंत्य फलज्योतिषतज्ञ के पास आते है । फल ज्योतिषतज्ञ वैद्यकिय उपायों को नाकामी का अध्ययन करते है । दांपत्य के जीवन मे दोष है या नही ये सवालों का जबाब तो फलज्योतिषीही दे सकते है, क्योकी बिमारी के साथ उसका इलाज भी ज्ञात होता है । इस नियम पर मद्दे नजर रखकर हमारे पूर्व संयोगीने ज्योतिष शास्त्र में उपाय लिखकर रखे है । जिस वजह संतती हिन दापंत्योंकी बडी से बडी समस्या भी हल हो सकती है। इसके लिये सबसे पहले फलज्योतिषी पती - पत्नि के जन्म कुंडली का गहल अभ्यास करते है, और अपत्य हिनता का कारण ढूढंणे का प्रयास करते है । अपत्य प्राप्ती की संभावना का अध्ययन किया है । फिर संतती न होने का सही कारण ढूंढ निकाला जाता है । इसमे कई कारण हो सकते है जैसेकी
जब कोई ठोस कारण पर पहुंचते है, तब वे दांपत्य का नारायणबलि - नागबली की विधिवत पुजा करने की सलाह देते है । यह विधि श्रध्दासे एवं शास्त्र शुध्द पध्दती से पुरा करने के पश्चात पति - पत्नि को संतती प्राप्ती का मौका मिलता है । ऐसे अनुभव कई दांपत्योने लिये है । इसलिये दांपत्य डॉक्टरी जौच के साथ नारायणबली - नागबली का धार्मिक विधी श्रध्दा से किया जाये तो दापत्य को अपती प्राप्ती होकर रहती है । किस्मत और कोशिश का गठबंधन हमेशा यश प्राप्ती की राह दिखाता है ।
अपत्य का महत्व
मानव का गृहस्थाश्रम संतती के बिना सफल नही होता । वह गृहस्थाश्रमकी सौख्य पूंजी कुलदिपकपूंज माना जाता है । इसलिए महाकवी भवभूती कहते है ।
अंत:करण तत्वस्य दंपत्या: स्नेहसंस्त्रवात् ।
आनंदग्रंथी रेकीयं अतत्यमिती पढयंते ।।
यस्य वै मृत्युकाले तु व्युच्छिन्ना संततिर्भवेत ।
ऐहिक सौख्या तथा पारलौकिक गती ये दोनो भी अपत्य लाभ से ही मिलते है । इस लोक में मनुष्य अनेकानेक दु:खो से जिस समय में शरीर मे कोई भी दोष ना होते हुए भी संतती की प्राप्ती नही होती । संतती योग कदापि नही आता, पुत्र नही होता, जिवित संतती को आरोग्य अच्छा नही मिलता, शरीर मे सदैव रोगपीडा रहती है । योगक्षेम अच्छा नही चलता । इन चिजों को अदृष्य कारण परंपरा रहती है । यह सोचकर उन्होने प्रथम इसके कारण लिखे हुए है ।
इन छह कारणोंसे विशेषत: अनंपत्यादि दु:ख प्राप्त होता है, ऐसा उन्होने जाना, अभी उपर नमूद किए कारणों का विस्तार से विचार करते है । पीतरों को गती न मिलने का मतलब सृष्टी के क्रम के अनुसार उन्हे पितृलोक नही मिलता याने की तृप्ती नही मिलती । इस मे अनेक चिजों का अंर्तभूत है । शास्त्रकारोने ऐसा माना है की ज्ञानराज्य के संचालक ऋषी अधिदैव कर्मराज्य के संचालक देवतागण है । तथा अधिभूत - अधिभौतिक स्थल राज्य के संचालक नित्य पितर है । उनकी तृप्ती याने उनके लिए श्राध्द करना याने क्या करना इसका भी विचार करना चाहिए । श्राध्द शब्द में श्रध्दा यह मुख्य शब्द है । अपना जनम जिस कुलमे हुआ हो उस कुल के तथा मातामहादि के कुल के मृत पुर्वजों के (प्रेत एवं पीतर) तृप्ती के लिए तथा उनके तृप्तीसे मिलनेवाली संतती एवं चिरसंपत्ती के लिए तीलदर्भादिकसे विधी के साथ किये गये उन्नोदकरूप पितृयज्ञ को श्राध्द कहते है । श्राध्द के बिना कितनाभी पवित्र एवं कितनीभी मुल्यवान पदार्थ पीतर ग्रहण नही करते । श्रध्दासे परिपूर्ण परंतु मंत्र के बिना दिया हुआ अन्नोदक पितरोंको मिलता नही । ऐसा स्कंदपुराण माहेश्वर खंड, कुमारीका खंड अध्याय ३५ एवं ३६ मे बताया गया है । ये पीतर कर्माधीन नही, ये पितरोंके २१ गण है । वे श्रध्दा का भाग पहुचाने का कार्य करते है । श्रध्दादि पितृकार्य करनेवाले निरोगी, दिर्घायु, सुपुत्रवान, श्रीमान धनोपार्जक ऐसा होता है, एवं पर लोक में उसे तृप्ती मिलती है । इसी कारण वश साधन छोडके साध्योकी प्राप्ती कैसे होगी?
आयु, प्रजा धनं विद्या मोक्ष सुखानिच ।
प्रयच्छन्ति यथाराज्य नृणां प्रीता: पितामहा: ।।
अर्थात ऐहिक और पारलौकिक सुख देने के लिए पितर सक्षम है यह बात ध्यान मे आएगी इसमे और एक बात सोचने लायक है । वो ऐसी की अपने पितरोमेसे किन्हे योग्य गति नही मिली एवं किन्हे कोनसे कारण के लिए गति नही मिली ये जानने के लिए हमारे पास कोई भी रास्ता नही है । इसलिए जिन्हे गति नही मिली ऐसे पितरों के लिए हमने क्या करने से उनके ऋण से हम मुक्ती पा सकते है । उसका विचार हमारे ऋषीयोंने किया है । इस काल में पितृकर्म का संपूर्णत: लोप हुआ है । इस कारण वंश सुखों का भी नाश हो रहा है । गृहस्थाश्रम का मतलब पितरोंकी आराधना । गृहस्थाश्रम के पूर्णत्व के लिए पितरोका अनुग्रह अत्यावश्क है ।
एकस्य पुत्रनाश: एकोदुहितरं लभेत । विरोधि बन्धुभि: सार्ध प्रेत दोषास्ति मे खग ।।
संततिदृश्यते नैव समुत्पन्ना विनश्यति । प्रकृतेस्तु विपर्यासो विद् विषो सहबन्धुभि: ।।
पशुद्रव्य विनाश: स्थात् सा पिडा प्रेत संभवा ।। देश कालेच पात्रे च श्रध्दय विधिना च यत् ।।
पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दानं श्राध्द उदार्हातम ।।
पितृशाप से संततिविश्चेद भी होता है । योग्य भाई बहनों से भी वैर उत्पन्न्ा होता है । पशु, द्रव्य का भी विनाश होता है । मनुष्य व्यसनाधीन होतां है, ऐसी दे:खोकी विपदा आती है । परिवार के लोग धर्मभ्रष्ट एवं नितीभ्रष्ट हो जाते । कहाँ जाए तो घरकी रौनक नष्ट हो जाती है ।
इसलिए इस दु:ख के निवारण के लिए शास्त्रकारों ने उपाय योजना की हुई है कि, पितरों के उद्देश से पवित्रस्थल, योग्यकाल सत्पात्र देख के विधीयुक्त प्रारे अन्न अन्न आहार- द्रव्यादी जो बडी श्रध्दा से दिया जाता है उसे श्राध्द कहते है। वही यह नारायणबली विधी है । पित्रार्जित संपत्ती के लिए एवं कर्तव्य मानकर उनकी वृध्दापकाल में सेवा करना कर्तव्य है । वैसेही मरणोत्तरभी उनके जैसे अमर्यादि पितृ देवों के लिए और जगत्पालन कर्ता विष्णु प्रित्यर्थ तथा सत्संगती एवं चिरसंपत्ती इनके लाभसे पूर्ण हानेवाले गृहस्थ धर्म के लिए यह विधी करने का उद्देश है । शास्त्रने बताया हुआ जो सुपूर्ण श्राध्द विचार है । एसीका यह मुख्यत: भाग है।
पुनाम नरकांत त्रायते इति पुत्र: ।।
अर्थात पारलौकिक सुख देने के लिए पुत्रही कारणीभूत है । मतलब वह उसका कर्तव्य है । इसलिए पुत्र शब्द की व्याख्या दी है । किंतुविस्तार भय के कारण नही करते है । फिर भी इस विधी के कारण नही करते है । फिर भी इस विधी के कारणों का उद्देश उपर दिए विवेचनसे ध्यान में आ जाएगा ।
दुसरो का धन लुटना अथवा वारीस हक्क से धन मिलना, दुसरो का धन लेना याने सबकुछ हो गया ऐसा नही । जैसे दुसरो का धन लिया है । और वो व्यक्ती जिवित नही है, वैसेही वह व्यक्ती निपुत्रीक हो तो उस व्यक्ती का श्राध्द करना अपना पहला कर्तव्य है । उस व्यक्ती का श्राध्द लोप होता है तो उपर दिए गये ११ कारणों मे दी गई पीडा उत्पन्न होती है ।
पिशाच्चों के तकलीफ से रिहाई (मुक्ती)
किसीकी चल या अचल जायदाद हो, खेत, जमीन, धन आदी गलत राहसे या धोखेसे हडप लिया हो तो ऐसी व्यक्ती का आत्मा उसके मृत्यु के पश्चात उसी भौत्तिक संपत्ती से जुडा रहता है। और दोषी व्यक्ती या व्यक्तियो को अनजाने समय तक जंग करता है । अगर दु:खी व्यक्ति का शरीर अग्नि मे भस्म हो या जमरन में गाड दिया गया हो फिर भी ऐसी व्यक्ती का आत्मा सीधे अगले सफर के लिए अतृप्तता के कारण नही बढ सकता याने की अतृप्त आत्मा के मुक्ती के मार्ग मे रुकावट आती है और ऐसा आत्मा प्रेतात्मा बन जाती है । उसका भूत या पिशाच्च रूपमें रुपांतरण हो जाता है । यह प्रेतात्मा बदले में जलती भावो से दोषी शक्स को तंग करने लगती है । ऐसे व्यक्तीयों की अत्येष्टि सही ढंगसे नही की जाती या श्राध्द का विधिवत विधी भी शास्त्रशुध्द विधिसे नही किया जाता और फिर यह अतृप्त आत्मा दोषी परिवार या व्यक्ती के पिछे पड जाता है ।
निचे कुछ तकलींफे का ब्यौरा दिया है वो इस प्रकार से है |
उपर निर्देशित किसी भी कारणो के मुशकिल से बचने के हेतु नारायणबली - नागबली का धार्मिक विधी शास्त्रानुसार करने की सलाह दी जाती है ।
पिशाच्च बाधा विवरण
इस जनम अथवा पिछले जनम में किसीने द्रव्य, घरबार, खेती वगैरा ऐहिक सुख-साधनों का अपहार किया हो, अभि जिस चिज का अपहरण किया गया हो उसमें वह जिवात्मा उस प्रियतम वस्तू में तन्मय हो जाता है । उसके जिवित रहने पर होनेवाले संस्कार, रहनेवाले निश्चय, विशिष्ट देह की जगह रहनेवाला 'मै' पन का अभिमान के मृत्यु के बाद भी रहता है । जीव भी उनकी भावना जैसी कल्पना पैसा एवं निश्चय की तरह बनता है । ऐसा जीव के बारे में उपनिषदो मे कहा गया है । जीवन मनोमय याने वासनामय है । वह वासना की तरह शरीर धारण करता है । एवं वासना की तरह शरीर को संभालता और सभी क्रिया करता है । सक्ष्म देह नष्ट होने के बाद प्राप्त होने वाला अतिवाहिक सुक्ष्म देह पंचतन्मात्रा सुक्ष्म पाँच ज्ञानेंद्रिय (मन, बुध्दी, चित्त, अहंकार, एक जीव अंत:करण चतुष्टय) इस से बनते है । वह सिर्फ मनोमय रहता है। इस विवेचन से ''अन्ते मति:सा मति'' इस नियम के अनुसार उस जीवात्मा को गति नही मिलती । वह जीवात्मा होने के कारण उसका वासना के अनुसार वासनासे संबधित रहनेवाले लोगों को वह पिडा देता है । उस तरह सृष्टीके क्रम अनुसार उसे गति नही मिलती । वह पैशाचिक योनी में जाता है । इस तरह से पैश्याच्चादिक बाधा होती है । इस जनम अथवा पिछले जनम में हमने किये हुए कर्मो का वी परिपाक होता है । उसे दूर करने के लिए शास्त्रकारोने ऐसा बताया है कि, सभी व्याधी या पीडा अपने कर्म से निर्माण होते है । उसका निवारण औषधी, दान, जप, होम, देवतानुष्ठान देनेवाले का ज्ञान हमको नही होता तथा हमे कारण परंपरा भी मालूम नही होती । इसलिए इस विधी द्वारा दवाईयो के उपयोग से तथा ब्राम्हणों को दिए हुए दानसे खाना खिलाए गये अन्नसे, ब्राम्हणोसे योग्य जगह किए गये अनुष्ठान से आपकी गृहपीडा, भूतबाधा, रोग बाधा नष्ट होती है । पूर्व कर्म सूक्ष्म देह रूप से यहाँ होता है । उसका फल वह सुक्ष्म देही सेही यहाँ देता है । इसलिए संकल्पकरके दिया हुआ अन्न आहारादि संकल्परुप वासनामय सुक्ष्म देह पर परिणाम कर सकता है । इस तरह रहनेवाली पैश्याच्चिक बाधा दूर होकर संतती प्रतिबंध वगैरा दु:ख गायब हो जाते है।
गलत वजह के कारण असामाईक मृत्यु
गलत कारणों की वजह से हूए असामायिक मृत्यु को 'दुर्मरण' कहते है । जिस परिवार मे इस तरह जिनकी मृत्यु होती है, वह व्यक्ती सारे परिवार को तकलिफ एवं मुशकिलों का सामना करना पडता है ।
असामायिक मृत्यु का समर्थन करने के कुछ कारण इस प्रकार है ।