अमृतकुंभ व्याख्यान

पुरा प्रवृते देवानाम देवैसह महारणे। समुद्रमंथनाप्राप्तं सुधाकुंभ तदा सुरै ।।
तस्मात्कुंभात्समुत्पत्र: सुधाबिंदु महीतले। यत्रयत्रापनत तत्रकुंभपर्व प्रक्रिर्तित ।।

(स्कंदमहापुराण)

जिस सुख के लिए सारे लोग प्रयत्न करते है उस सुख को मिटानेवाला मृत्यु किसे प्रिय होगा ? इस मृत्यु से छुटकारापाने के लिए मानव कई सालों से प्रयत्न कर रहा है। भगवान मानव से अमर है, उसे अमर करनेवाली वस्तु उसके पास है और वह वस्तु है 'अमृत'। यह शब्द वैदिक वाडःमय में अनेक बार पढा जा चुका है। इसके उत्त्पती की कथा इस प्रकार है - कृतयुग में ऐरावतपर बैठे इंद्र देव को देखकर संतुष्ट हुए 'दुर्वास' ऋषीने अपनी गले की माला प्रसादरुप इंद्र को अर्पण की। परंतु इंद्र ने उसे स्विकार न करते हुए ऐरावत (हाथी) के पैरों के निचे कुचली गयी। यह देखकर दुर्वास ऋषी क्रोधीत हो गये और उन्होने इंद्र का ऐश्वर्य और पद नष्ट होने का श्राप दिया। इसी कारण इंद्र और देवोंका सामर्थ्य नष्ट हुआ और देवों को दानवो द्वारा हार माननी पडी। उस समय दानवों का राजा 'त्रिपुरासूर' राज्य कर रहा था। सभी देव ब्रम्हदेव समेत विष्णू देव को शरण गये। तभी विष्णूजी ने सलाह दी की देवों ने दानवों के साथ समझोता करके उनकी मदद से 'समृद्रमंथन' कराया तो देवों को अमृत की प्राप्ती होगी। इस अमृतप्राशन से देव दानवोंसे कभी पराजित नहीं होंगे। विष्णू की यह युक्ती सभी देवोंको पसंद आयी। सभी देव त्रिपुरासूर के पास गये और उन्होंने समृद्रमंथन का प्रस्ताव रखा। समृद्रमंथन से मिला हुआ आधा अमृत स्वयं को देने के वादे पर त्रिपुरासूरने समुद्रमंथन में सहायता करने का वादा किया। फिर देव-दानवोंने 'मंदार' पर्वत क्षीरसागर के बीच रखा और डोर की जगह 'वासुकी' सर्प को पर्बत को लपेटा गया। वासुकी को भी आधा अमृत देने का वादा किया गया। वासुकी की मुह तरफ दानव और पुछ की तरफ देव इस तरह समुद्रमंथन का आरंभ किया गया । मंदार पर्वत वजनदार होने पर विष्णु भगवानने कछुए का रुप लेकर पर्बत को आधार दिया और समुद्रमंथन संपन्न हुआ। समुद्रमंथन के दरम्यान नीचे दिये रत्न निकले

लक्ष्मी: कौस्तुभपारिजातकांसुरा धनवंतरीचंद्रमा । गाव: कामदुधा: सुरेश्वरगणे रंभादिदेवांगना ।।
अश्वसप्तमुख: सुधा हरिधनु: शंखो विषचांबुधे । रत्नानिती चतुद्रशं प्रतिदिन कुर्वन्तु वै मंगलम ।।

समुद्रमंथन से निकले रत्नोंके साथ 'श्री धन्वंतरी' हाथ में अमृत कलश निकले. श्री विष्णूजी के संकेतानुसार देवोंको उस कलश का दैत्योंसे संरक्षण करना था। बृहसप्तीजी के अनुशासन में इंद्रपुत्र 'जयंत' ने वह कलश हस्तगत किया तथा कलश रक्षण के लिए 'चंद्र' की नियुक्ती की गयी। दानवोंने देवो का पिछा किया। देव अमृतकलश लेके तीनों लोकों में छिपाते फिर रहें थे। मृत्यूलोक में देवों के बारा दिन मतलब बारा साल होते है। इन बारा सालों में वह कुंभ चार जगह रखे गये । वह जगह है ''हरिद्वार'', ''प्रयाग'', ''त्र्यंबकेश्वर'' और ''उज्जैन''. वह कुंभ उठाते वक्त अमृत के छिटे इन चार जगहोंपर गिर गये इस लिए इन स्थानोंको असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ है। गंगावतरण की घटना भी उसी समय की है इसी कारण तिर्थराज कुशावर्त में स्नान करना अधिक पवित्र माना जाता है।
इति शुभं भवंतु ।

ऐसी प्रकट हुई गंगा

कृते लक्षद्वयातीते मांधतरी शके सति । कुर्मेचैवतारेच तथा सिंहगते गुरू ।।१।।
माघ शुक्ल दशम्याच माघ्यान्हे सौम्यवासरे । गंगा समागता भूमी गौतम प्रार्थिता सति ।।२।।

कृतयुग में मांधता शक में गुरु जब सिंह राशी में था तब माघ मास की दशमी (दसवे दिन) के दोपहर 'कंलिमलहारिणी' गंगा (गोदावरी) ऋषि गौतम की प्रार्थनाओंपर पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुई। गौतमी गंगा उत्पती की पौराणिक कथा आगे दि गयी है ...

त्रिसंध्या क्षेत्र त्र्यंबकेश्वर परिसर में शारदाकुल में जन्मे 'गौतम' ऋषी निवास कर रहे थे। उनकी पत्नी का नाम अहिल्या था। गौतम की अतिव तपश्चर्या, सेवाधर्म और पुण्याईके कारण देवराज इंद्र की स्थान को भय निर्माण हुआ। तभी इंद्रदेवने छल से गौतम ऋषीके हाथो गोहत्याका पातक कराया। शंकरजीके जटाओंसे निकली गंगाकी पवित्र जल से स्नान किये बिना इस पातक का प्रायश्चित नहीं हो सकता था। गौतम ऋषीने बाराह वर्षोतक तपश्चर्या करके शंकरजीसे गंगा को मांग लिया। शंकरजीने गंगा को भूलोक जाने की आज्ञा की परंतु वह जाने के लिए तयार नहीं थी। तभी शंकरजी अपनी जटाए पत्थरोंपर पटककर गंगा का त्याग किया ( यह स्थान आज भी देखा जा सकता है) गंगा को अब पृथ्वीपर आना ही पडा परंतु गौतम ऋषी का पाप धुलने के बाद वह वापस जाना चाहती थी। गंगाने बिनती की अगर वह मानवों का पाप धुलने के लिए पृथ्वीपर रुकती है तो, जब सिंह राशीमें गुरु आ जाये तो सभी पवित्र नदिया, तीर्थे और देवता १३ महिनों के लिए मुझमें वास्तव के लिए आनी चाहिए और उसे अग्र पुजा का मान मिलना चाहिए। भगवानजी ने यह मानते ही गंगा भूलोक पर बहने लगी। ब्रम्हगिरी पर्वतपर औदुंबर के पास गौतमी गंगा बहने लगी परंतु गौतम ऋषी को स्नान करने में दिक्कत हो रही थी। ब्रम्हगिरी पर्बत के नीचे बहता प्रवाह उन्होने दर्भ से बडा किया इसीलिए इस तीर्थ को कुशावर्त कहा जाता है। यही कुशावर्त गोदावरी का उगम स्थान है।

तिर्थराज कुशावर्त

कुंशेनावर्तिता गंगा गौतमेन महात्मना । कुंशावर्तमिती ख्यात त्रिघु लोकेषु विश्रुतम् ।।

कुशावर्त यह परम पवित्र तिर्थ त्र्यंबकेश्वर गांव के बीच है । शास्त्रीय आधारानुसार चार कोन जिसे होते है उसे 'तिर्थ' कहते है और छ कोन होने पर 'तिर्थराज' कहते है। इसीकारण कुशावर्त को तिर्थराज कहा गया है। यह हेमाडपंथी पध्दती से बांधा गया है। तिर्थ के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओंको ’ओवरी’ बांधी गयी है। बाहरी बाजूपर गंगावतरण के वक्त जो देवता, ॠषी, ॠषी पत्नी कार्थान्वित थे उनके शिल्प और नकाक्षीकाम वहा देखे जा सकते है। अग्नेय दिशा में शिवालय, नैॠत्य में गणपतीजी की मूर्ती है। इस तिर्थ से की गौतमी गंगा को गोदावरी नाम प्राप्त हुआ । गोदा शब्द का अर्थ इस प्रकार है

''गौतमस्य गां जीवन ददाति इति गोदा''

गौतम ऋषींको गोह्त्याके पातक से मुक्त करनेवाली गोदावरी नाम से जानी जाती है। सिंहस्थ काल में शास्त्रकारोंने तिर्थराज कुशावर्त को अग्रपुजा का मान दिया है कारण

त्रिकांटके शोभामान त्र्यंबंक नामनात । तत्र तिर्थ कुशावर्त त्रिघु लोकेश विश्रुतम ।।

ऐसा यह कुशावर्त तिन्हों लोको में प्रसिध्द है इसीलिए उसे ''त्वं राजा सर्वतिर्थानाम्'' कहा जाता है। सिंहस्थ में अगर इस तीर्थपर स्नान करें तो मनुष्य सर्व पापोंसे मुक्त हो सकता है और अध्यात्म की तरफ बढता है। प्रभु रामचंद्र जब नाशिक पंचवटी में वास्तव के लिए थे तभी उनके पिता दशरथ स्वर्गवासी हुए। शोक में डुबे प्रभु के स्वप्न में आकर पिताश्री ने कहा मुझे अब तक मुक्ती नही मिली. मुझे मुक्ती दिलाओ। तभी प्रभुने पास रहनेवाले 'कश्यप' ऋषीके आश्रम में जाकर उनसे सलाह पुछी तभी उन्होंने उपदेश किया

सिंहस्थेच सुरगुरौ दुर्लभं गौतमी जलम् । यत्रकुंत्रापि राजेद्र कुशावर्म विशेषत: ।।
तवभाग्येन निकटे वर्तते ब्रम्हभूधर: । सिंहस्थो पि समायात: तंत्र गत्या सुखीभव ।।
सिंहसथेतु समायते राम: कंश्यप संयुत: त्र्यंबकंक्षेत्र मागंल्य तिर्थयात्रां चकांर ह ।।

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