तीर्थराज कुशावर्तमेही सिंहस्थ कुंभ-स्नान होना चाहिये सभी आखाडे, साधू, संत, महंत, महात्मा मण्डलेश्वरोंका शास्त्रीय निर्णय
।। कुशावर्त समं तीर्थ नास्ति ब्रम्हांड गोलके ।।
त्रैलोक्यपावनी गोदावरीका अनादिजन्मपीठ परमपुण्यधाम श्रीक्षेत्र त्र्यंबकेश्वरमें इस समय सिंहस्थ महापर्व बडे समारोहके साथ चल रहा है। बारह वर्षसे आनेवाले इस सिंहस्थकुंभ महापर्वमें तीर्थराज कुशावर्तमे स्नान करनेकी परंपरा शास्त्रसिध्द और सुप्रसिध्द है। सभी तीर्थ, सरिताँए और देवताँए अपने पाप पालिन्यको हटानेके लिए भगवान श्रीशंकरजीकी आज्ञासे कुशावर्तमे निवास करते है। भगवान शंकरका पद्मपुराण मे यह आज्ञावचन है ।
मूलस्थानं समायान्तु सिहस्थे च बृहस्पती ।
वर्षमेकं च तिष्ठन्तु पुनर्यांन्तु निजाश्रमम् ।।
तीर्थराज कुशावर्त की अदभुत महिमा
कुशावर्तसमं तीर्थ नास्ति ब्रम्हांण्डगोलके ।
तस्मात्परतरं तीर्थ न भूत न भविष्यति । - स्कंदपुराण
कुशावर्तके समान तीर्थ ब्रम्हांडभरमें नही है। ऐसा तीर्थ न हुआ न होगा। चतुष्कोण ''तीर्थ'' कहलाता है और षट्कोण तीर्थराज!!! चतुष्कोणं भवेत्तीर्थ षट्कोणस्तीर्थराडम् । कृतयुगमें गौतम महामुनीके गोहत्यापातकको दूर करनेके लिए ब्रम्हाद्रवरूपा जगत्पावनी वृध्दागोदा कुशावर्तमे (कुशोंसे-दर्भोसे-आवर्तित) की गयी, इसलिये इसे ''कुशावर्त'' कहते है ।
त्र्यंबके चाब्जके चैव गोदासागर संगमे।
सर्वत्र सुलभा गोदा त्रिषु स्थानेषु दुर्लक्षा।। पद्मपुराण
त्र्यंबकेश्वर (मूलस्थान) अब्जक (नान्देड) मोदासागर संगम (राजमहेंद्री) इन तीन स्थानोंपर गोदास्नान दुर्लभ है।
कुशावर्ते तु ये राजन् वपनं च यथाविधी ।
कुर्वन्ति तेषां पितर: शिवरुपा भवन्ति ते।। स्कंदपुराण
कुशावर्तपर मुंडन करनेवालोंके पितर शिवरूप हो जाते है ।
सर्वतीर्थमयी गोदा सर्वदेवमय: शिव:
उभयात्मकमेताद्धि कुशावर्तमतोsधिकम।। स्कांदे
सर्व तीर्थोंकी ''आत्मा'' गोदावरी, और सर्व देवता स्वरूप भगवान त्र्यंबकनाथ है। इन दोनोंका निवासही नही एकरुपता कुशावर्तमें है।
त्र्यंबकेश्वरसान्निध्याकुशावर्त विशिष्यते।
सिंहस्थिते सुरगुरी कुंभयोगोsत्र मुक्तिद: ।। पद्मपुराण
त्र्यंबकस्थानके सान्निध्यसे कुशावर्तकी महिमा विशेष है। सिंहस्थपर्वमें यहा कुंभयोग मुक्तिप्रद है। कश्यप महर्षि भगवान श्रीरामचंद्रजीको आज्ञा दे रहे-की- ''सिंहस्थ पर्वकालमे त्र्यंबकेश्वर जाओ''!!
रामराम महाबाहो मद्वाक्यं कुरू यत्नत:। सिंहस्थिते सुरगुरी दुर्लभ गौतमीजलम् ।
यत्र कुत्रापि राजेंद्र कुशावर्ते विशेषत:। तव भाग्येन निकटे वर्तते ब्रम्हाभूधर: ।
सिंहस्थोपि समायातस्तत्र गत्वा सुखी भव। यावदभ्येति सिंहस्थस्तावत्तिष्ठ ममाज्ञया ।
सिंहस्थे तु समायते राम: कश्यपसंयुक्त: । त्र्यंबकक्षेत्रमागल्य तीर्थयात्राचकार ह।। स्कंदपुराण
रामभद्र ! अब तुम मेरी बात मान लो ।!
सिंहराशीमे बृहस्पतीके आनेपर गौतमीका जल दुर्लभ है। जल्दीसे जल्दी और कही नही, तुम कुशावर्तपर जाओ। तुम्हारे भाग्यसे वहाँ ब्रम्हगिरी भी विद्यमान है। सिंहराशीमें गुरू भी आ रहे है। जबतक सिंहराशी में गुरू है तबतक तुम मेरी आज्ञासे त्र्यंबकमे रहो। ऐसी आज्ञा सुनकर भगवान श्रीरामचंद्र नासिक, पंचवटी छोडकर सिंहस्थपर्व में कश्यपजीके साथ त्र्यंबकमे आये और कल्पवास करके विधिविधानसे सिंहस्थयात्रा की ।
अमृतकुंभसे चार स्थानोंपर अमृतके बिन्दु पडे है, उनमे १) हरिद्वार, २) प्रयाग, ३) उज्जैन, ४) त्र्यंबकेश्वर ये चार स्थान है। त्र्यंबकेश्वरमे भी कुशावर्तपर अमृतबिन्दु गिरे है ।
अमरता देनेवाले महामृत्युजयकी जटासे निकला हुआ कुशावर्तका पवित्र जल ''अमृत'' ही है। इसीसे यहीपर गोदावरीका कुंभ लगता है।
प्रमादाद्यो नरो मूंल हित्वाsन्यत्र विशेषभाक्।
करोति मुण्डन श्राध्द नरकं चाधिगच्छति ।। स्कंदपुराण
भूलसे यदि कोई मूलस्थान छोडकर दूसरी जगह मुंडन और श्राध्द करता है। वह नरक को जाता है। इन प्रमाण वचनोसे स्पष्ट हो जाता है ''सिहस्थ कुंभकी महिमा कहा है।
सिंहस्थ कुंभपर्वका स्नान त्र्यंबकेश्वरमें क्यो?
बहूत प्राचीन कालसें यहां साधुओके अखाडे है। और वे महात्मा लोग सदियोंसें हर बारह वर्ष मे त्र्यंबकेश्वर मे ही आकर कुशावर्तमेंही स्नान करते है। अत एव मर्यादापुरुषोत्तम श्रीमद्राघवेन्द्र रामचंद्रजीने भी यहा त्र्यंबकेश्वर में कुशावर्तमेही कुंभ स्नान किया था। गोदातट पवित्र होनेपरभी मूलस्थान की महिमा लोकोत्तर है यही उनके त्र्यंबकेश्वरमे आनेका रहस्य था। श्रुति, स्मृती, और पुराणोंमे कुशावर्तकी और गोदावरीकी महिमा कूटकूटकर भरी हुई है।
त्र्यंबकेश्वरमें करने योग्य धार्मिक विधी
रेवातीरे तप: कूर्यान्मरणं जान्हवीतटे।।
दानं दुद्यात्कुरूक्षेत्रे तत्त्रयं गौतमीतटे।।
नर्मदाके किनारे तप, भागीरथीके तटपर मृत्यु और कुरूक्षेत्रमे दानकी गडी महिमा है किन्तु इन तीनोकों गोदावरी के तटपर किया तो अत्यं पुण्यप्रद है।
त्र्यंबकेश्वर आकर क्या करना चाहिये ?
गंगापूजन, गंगाभेट, मुंडन, तीर्थश्राध्द, श्रीत्र्यंबकेश्वर भगवान की महापूजा, रुद्राभिषेक, लघुरूद्र, महारुद्र, लक्षविल्वार्चन, गोप्रदान, सिंहरुढ बृहस्पतिकी सुवर्ण प्रतिमादान, नागबली, नारायणबली, अस्थिविसर्जन, व्रतबंध, ब्राम्हण भोजनादि सभी कार्य करने लिए यही पुण्यभूमि अत्युत्तम है।
उपयुक्त विवेचनसे हम यह निर्णय दे रहे है कि
सिंहस्थ कुंभ पर्वका स्नानादि धार्मिक विधी तीर्थराज कुशावर्तपरही होना चाहिये। इससे जनताका भ्रमनिवारण होनेकी आशा है। त्र्यंबकेश्वर एक पवित्र तपोभूमी है। संतश्रेष्ठ श्री निवृत्तीनाथजीकी समाधी, गोरक्षनाथजीकी गूंफा आदि स्थान यहा है। ब्रम्हगिरी, गंगाद्वार, नीलपर्वत जैसे रमणीय पर्वतोंसे घिरी यहा की रम्य वनश्री ह्दयको आनंद देती है। ऐसे पवित्र रमणीय तपोभूमीपर पधारकर सभी सज्जनोंको पुण्यसंपादन करना चाहिये।
पर्वपर शाही स्नान की तिथीयाँ और दिनांक
१. आषाढ व ।। ३० सोमवार शके १८७८ दिनांक ६ अगस्त १९५६
२. श्रावण व ।। ३० मंगलवार (मुख्यस्नान) (उत्तर भारत मे भाद्रपद व ।। ३०) शके १८७८ दिनांक ४ सितंबर १९५६
३. भाद्रपद शु ।। ५ रविवार शके १८७८ दिनांक ९ सितंबर १९५६
४. अश्विन शु ।। १५ शुक्रवार शके १८७८ दिनांक १९ अक्तूबर १९५६
स्थानीय विद्वत्समितीकी प्रार्थना सुनकर महात्माओंने यह निर्णय दिया है ।
महात्माओंके हस्ताक्षर
सिंहस्थ महापर्वकाल
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी शके १८७८ मंगळवार दिनांक २८/८/१९५६