विषकन्या योग और वैधव्य योग के विवाह की जानकारी
विषकन्या योग
सूर्य भौमिर्किवारेषुमिथी भद्राशतभियम् । आश्लेषा कृत्तिका नामे मत्र ज्ञाता विषांगना ।।१।।
कन्या का जन्म अगर सोम, मंगल या शनिवार के दिन हो तथा भद्रातिथी २,७,१२ हो तथा नक्षत्र कृतिका, आश्लेषा मूल,
शततारका हो तो वह कन्या विषकन्या योगसे पिडीत है ।
(खुलासा = वार, तिथी, नक्षत्र मिलाकरही विषकन्या योग होता है ।)
जर्नुलग्ने रिपुक्षेत्रे सांस्थित: पापखेचर:। द्विसास्मापि योगेsस्मिन सन्जाता विषकन्या ।।२।।
अगर जन्म शादी योग तथा शत्रु क्षेत्रमें पापग्रह आते है तो प्रथम श्लोक के अनुसार कौनसे दो योगानुसार कन्या विषकन्या योगी होती है ।
(खुलासा = वार, तिथी, नक्षत्र मिलाकरही विषकन्या योग होता है ।)
लग्ने शनिचरो यस्या सूतेर्को नवमे कुंज । विषायव्या सापि नौद्वाहया त्रिविध विषकन्या ।।३।।
जिस कन्या की शादी राशी में शनी पंचम भावमें सूर्य और नवम स्थान में मंगल हो तो कन्या विषकन्या होती है ।
उपर दिये स्थितीयों में विषकन्या योग होता है । इसी विषयपर गुजरात और राजसथान मे एक पुरानी दंतकथा मशहूर है ।
विषकन्या योगमे जन्मी कन्या जिवित नही रहती । अगर धरतीपर जन्म ले तो वो अल्पायुषी होती है । ऐसी कन्या संपूर्ण पुरिवारको नष्ट करती है । या पीडा देती है । विवाह संस्कार के समय फेरो के वक्त अपने वर को नश्ट करती है । इस कन्या का वैवाहिक जीवन काफी कष्टमय होता है । अगर इस प्रकार का योग कन्या की कुंडली मे आ जाये तो उसका उपाय 'कुभविवाह' है ।
विधवा योग
१) जिस कन्याकी कुंडली मे सप्तम भावमें पापग्रहयुक्त मंगल ग्रह आते है । वह विवाहीत कन्या जवान होते ही बालविधवा होती है ।
२) चंन्द्र के स्थानसे सातवे और आठवे स्थानपर पापग्रह आ जाये । मेष और वृश्चिक राशीयो मे राहू आठवे और बारवे स्थानपर आ जाये तो कन्या निश्चित विधवा होती है ।
३) अगर शादी मकर है और उसके सप्तभाव मे कर्क राशी के साथ सूर्य-मंगल है । तथा चंद्र पापग्रह पिडीत है, तो यह योग आता है ।
कन्या मध्यम आयु में विधवा हो सकती है ।
४) शादी और सप्तम भावमें अगर पापग्रह हो तो विवाहित स्त्री मध्यम आयु में विधवा हो सकती है ।
५) आपकी कुंडली के सप्तम स्थानपर अगर पापग्रह है या चंद्रष्ाठ अथवा सप्तम स्थानपर है तो मध्यम आयु में विधवा योग आता है ।
६) अगर अष्ट्माधिपती सप्तम भावमे हो और सप्तमेष में पापग्रह हो तो कन्या विवाह के तुरंत बाद विधवा होती है ।
७) षष्ठ और अष्ठम स्थान के अधिपती अगर षष्ठ अथवा बारवे स्थान में पापग्रह है और सप्तम भावपर किसी भी ग्रह की शुभ दृष्टी न हो तो नववधू विधवा हो जाती है ।
८) विवाह के दरम्यान सप्तम, अष्टम स्थानके स्वामी पापग्रह से पीडीत हो तो छटे और बारवे स्थापनर होकर भी विधवा योग आता है ।
यदिलग्नगत: कुरस्तमाम् सप्तमग: कुंज । विषेयम् मरणम् पुंसाम ।।१।।
यदि लग्नतश्चस्तस्मात् सप्तम/ कुंज: । मृत्यु विज्ञानीयान ।।२।। (नारद)
ऊपर दिये श्लोक का अर्थ है की कन्याके जन्म लग्नमे सप्तमेश पापी या पापग्रहयुक्त हो और अनिष्टकारी (६,८,१२) स्थान मे हो तो पति सुखमें हानी होती है । उसीप्रकार लग्नस्थानपर या फिर सप्तमस्थानपर मंगल ग्रह आ जाये तो पतिसुखसे कन्या वंचित रहती है ।
लग्ने व्ययेच पाताले जामित्रेचाष्टमे कुंज: । कन्या भर्तुविनाशाय भर्ता विनाशकृंत ।।
अर्थात कुंडलीमं लग्न प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और बारवे स्थान में मंगल ग्रह आ जाये तो पति सुखमें हानी होती है ।
(खुलासा = उपरी श्लोक में सिर्फ मंगल ग्रहका विचार किया गया है । इसके साथ अन्य ग्रहो के स्थान का विचार करना भी आवश्यक है ।)
कृष्णमूर्ती पध्दतीसे दो विवाह योग विचार
सप्तमभाव के उनपक्षत्र स्वामी २ या ७,११ मे से एक या तिन्हो का कार्य श ६ या १२ दोनो भावका हो तो अपेक्षित वैवाहिक सौख्यप्राप्ती नही होती । उसीप्रकार यदी वह उपनक्षत्र बुध हो या बुध नक्षत्र तथा राशी मे हो तो २ या १२ भाव का बलवान कार्ये हो तो एक ज्यादा विवाह योग होता है ।
विषकन्या भंग योग
अगर पापग्रह सप्तम स्थान तथा सप्तमे शांत विराजमान हो और वह पापग्रह दृष्ट हो फिरभी शुभग्रह के साथ होनेसे विषकन्या योग भंग पाता है । सप्तस्थान ये पतिका स्थान होनेसे वहा पर पति के सुख का विचार होता है । यह ध्यान मे रखना जरूरी है की सप्तम मे शुभग्रह होनेसे याफिर सप्तमपर शुभग्रह की दृष्टी पडने से पतिसुख मे बरकत होती है। इस संबंध मे कल्याण वर्मा ने अपनी सारावलीमें अधिक विस्तृतपुर्ण लिखा है।
वैधत्व निधने चिन्त्यं, शरीर जन्मलग्नत: । सप्तमे पति पंचमे प्रसवस्था ।।
(सारावली स्त्री जातक)
पुरूष के अष्टम भावकेनुसार 'विधुरता' और स्त्रीके अष्टम भावकेनुसार 'वैधव्यता' का विचार किया जाता है । सप्तम स्थान के अनुसार स्थिती, संपदा, वैभव और पति के सौभाग्य का विचार किया जाता है । पंचम स्थान के अनुसार लडका-लडकी के स्थिती का विचार किया जाता है । परंतु पतिसुख का विचार करते समय स्त्रीभाव को अत्यंत महत्व दिया जाता है। विषकन्या योग और वैधव्य योग के दोष निवृत्ती के हेतू धर्मशास्त्र यह कहता है।
सावित्र्यादिव्रतं कृंत्य वैधव्यदिनिवृत्तये । अश्वत्थादिभिद्वाह्या दधानां चिजीवने ।।१।।
बाल वैधव्ययोगे तु कुंभादुपतिमादिभि: । कृंत्वा तत: पश्चात कंन्योहयेति चापरे ।।२।।
वटसावित्री व्रत से पीडा का हरण हो सकता है । अश्वस्थ (पिपल) वृक्षसे विवाह या कुंभ विवाह करने और उसके बाद किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह करने से वैधव्य योग नही रहता है । इसी प्रकार ''हे माद्री व्रतखंड'' ग्रंथ मे ''वैधव्यर्योग नाशक सावित्रीव्रत'' पुजा लिखी गयी है। ग्रंथ कहता है
जिस कन्या की कुंडलीयों मे विधवा योग है, उनके माता-पिताने कन्यासे एकांत मे ''सावित्री व्रत'' अथवा ''पिपल व्रत'' करवाकर दिर्घायू वर के साथ विवाह रचाना चाहिए।
नारी वा विधवा पुत्रीपुत्र विवर्जिता । सभर्तुका सुपुत्रा वा कुर्याद व्र तभिंद शुभम ।।
(स्कंद पुराण )
उपर दिया व्रत विवाहित स्त्री, विधवा, कुमारी, वृध्दा, सुपुत्रवती और निपुत्रिक औरते भी कर सकती है ।
इसप्रकार का दूसरा व्रत ''वैधव्या हर अश्वत्थव्रत'' का उल्लेख ज्ञानभास्कर ग्रंथ में किया गया है । व्रत के अनुसार माता-पिताने अपने कन्यासे यह व्रत का संकल्प शुभमुहूर्तपर कन्यासे करवा लेना चाहिए । इस व्रत का संकल्प रंगीन वस्त्र पहनकर ब्राम्हणद्वारा करना चाहिए । यह व्रत एक महिने तक किया जाता है । चैत्र वद्य तृतीया अथवा अश्विन वद्य तृतीया से लेकर अगले महिने की वद्य तृतीया मक यह व्रत करना चाहिए । यह पुजा पिपल के पेड के नीचे करनी चाहिए । अगर पिपल न हुआ तो शमी या बेरके वृक्ष के नीचे भी ये पुजा कर सकते है। पूरे महिने तक प्रतिदिन पुजा करने से आवश्य पतिसुख प्राप्त होता है ।
वैधव्यहर कंर्कटीव्रत
व्रतराज ग्रंथ में और एक व्रत दिया गया है। सूर्य जब राशी मे प्रवेश करेगा तब कन्याने स्नान करके कच्चे चावल के दानोसे (अक्षदा) अष्टदल बनाकर सोने की कर्कटी (ककडी) की स्थापना कर उसकी पूजा करनी चाहिए। विधिवत व्रत करके स्वर्ण कर्कटी (ककडी) सहीत ग्यारह कर्कटी (ककडी) ब्राम्हणों को दान दे । इस व्रत से वैधव्य योग की शांती होती है ।
उसी परपकार ''मार्केण्डेय पुराण'' में ''कुंभ विवाह'', '''विष्णूविवाह'', 'अश्वथ्विवाह'' यह तीन परिहार व्रतों की विधिया दी गयी है । इन तीनों व्रतों मे ''गणपती पुजन'', ''पुण्याह वाचन'', ''मातृ कायु जन'', ''वर्सो धारायु जन'', ''ना दीश्राध्द'', ''सुवर्णमयी विष्णु पूजन'', ''हो महवनादि'' आदी पुजा करने के बादही आगे के कर्म करने के लिये कहा गया है ।
अर्क विवाह
जिस प्रकार स्त्री के कुंडली मे 'विषकन्या योग' होता है उसी प्रकार पुरुषों की कुंडलीमें ''विधुरयोग'' होता है । जिस प्रकार स्त्रियों की कुंडली मे वैधव्य योग देखा जाता है । उसी प्रकार पुरुषों की कुंडली में विधुर योग देखा जाता है । अगर पुरुष को एक से ज्यादा विवाह करके भी पत्निसुख प्राप्त नही होता है तो उस पुरूष का विवाह अर्क (रुई) के पेडके साथ कराके दुसरी कन्या के साथ विवाह करना चाहिए । कुंभविवाह के जैसा ही यह अर्क विवाह सप्तभावके जन्मदोष या अरिष्ट निवारण का उत्तमोत्तम परिहार है ।
मुहूर्त कालविचार
आदित्य दिवसे वापि हरपक्षे वा शनिश्वरे ।।
''अर्क विवाह'' शनिवार, इतवार, हस्त नक्षत्र तथा शुभदिन पर ही किया जाता है ।
संकलन - भूषण सांभ शिखरे (पवईकर)